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#‎रहस्य‬ ‪#‎क्षत्रियत्व‬ ‪#‎रजपूती‬


#‎रहस्य‬ ‪#‎क्षत्रियत्व‬ ‪#‎रजपूती‬
जरूर पढे राजपूतो से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओ को
1) अगर आप के पिता जी /दादोसा बिराज रहे है तो कोई भी शादी ,फंक्शन, मंदिर इतिआदि में आप के कभी भी लम्बा तिलक और चावल नहीं लगेगा, सिर्फ एक छोटी टीकी लगेगी !
2) पहले के वक़्त वक़्त राजपूत समाज में अमल का उपयोग इस लिए ज्यादा होता था क्योकि अमल खाने से खून मोटा हो जाता था, जिस से लड़ाई की समय मेंहदी घाव लगने पर खून कार रिसाव नहीं के बराबर होता था, और मल-मूत्र रुक जाता था जयमल मेड़तिया ने अकबर से लड़ाई के पूर्व सभी राजपूत सिरदारो को अमल पान करवाया ने
3) पहले कोई भी राजपूत बिना पगड़ी के घोड़े पर नही बैठते थे
4) सौराष्ट्र (काठियावाड़) और कच्छ में आज भी गिरासदार राजपूत घराने में अगर बेटे की शादी हो तो बारात नहीं जाती, उसकी जगह लड़केवालों की तरफ से घर के वडील (फुवासा, बनेविसा, मामासा) एक तलवार के साथ 3 या 5 की संख्या में लड़की के घर जाते हे जिसे "वेळ” या ‘खांडू" कहते है. लड़कीवाले उस तलवार के साथ विधि करके बेटीको विदा करते है. मंगल फेरे लड़के के घर लिए जाते है.
5) आज भी कही घरो में तलवार को मयान से निकालने नहीं देते, क्योकि तलवार को परंपरा है की अगर वो मयान से बाहर आई तो यहाँ तो उनके खून लगेगा, यहाँ लोहे पर बजेगी, इसलिए आज भी कभी अगर तलवार मयान से निकलते भी है तो उसको लोहे पर बजा कर ही फिर से मयान में डालते है !
6) राजपूत परम्परा के मुताबिक पिता का पहना हुआ साफा , आप नहीं पहन सकते
7) पैर में कड़ा-लंगर, हाथी पर तोरण, नांगारा निशान, ठिकाने का मोनो ये सब जागीरी का हिस्सा थे, हर कोई जागीरदार नहीं कर सकता था, स्टेट की तरफ से इनायत होते थे..!!
8) पहले सारे बड़े ताजमी ठिकानो में ठिकानेदारों को विवाह से पूर्व स्टेट महाराजा से अनुमति लेनी पढ़ती थी
9) हर राज दरबार के, ठिकाने के, यहाँ गोत्र उप्प गोत्र के इष्ट देवता होते थे, जो की ज्यादतर कृष्ण या विष्णु के अनेक रूप में से होते थे, और उनके नाम से ही गाँववाले या नाते-रिश्तेदार दुसरो को पुकारते है करते थे, जैसे की जय रघुनाथ जी की , जय चारभुजाजी की
10) मल गोलना, चिलम, हुक्का यहाँ दारू की मनवार, मकसद होता था, भाई,बंधू, भाईपे,रिश्तेदार को एक जाजम पर लाना !!मनवार का अनादर नहीं करना चाहिए, अगर आप नहीं भी पीते है तो भी मनवार के हाथ लगाके या हाथ में ले कर सर पर लगाके वापस दे दे, पीना जरुरी नहीं है , पर ना -नुकुर कर उसका अनादर न करे
11) जब सिर पर साफा बंधा होता है तोह तिलक करते समय पीछे हाथ नही रखा जाता
12) दुल्हे की बन्दोली में घोडा या हाथी हो सकता है पर तोरण पर नहीं, क्योकि घोडा भी नर है, और वो भी आप के साथ तोरण लगा रहा होता है, इस्सलिये हमेशा तोरण पर घोड़ी या हथनी होती है !!
13) एक ठिकाने का एक ही ठाकुर,राव,रावत हो सकता था, जो गद्दी पर बैठा है, बाकि के भाई,काका ये टाइटल तभी लगा सकते थे जब की उनको ठिकाने की तरफ से अलग से जागीरी मिली हो,और वो उस के जागीरदार हो, अगर वो उसी ठिकाने /राज में रह रहे हो, तो उनके लिए "महाराज" का टाइटल होता था!
14) आज भी त्योहारों पर ढोल बजने के नट,नगरसी या ढोली आते है उन्हें बैठने के लिए उचित आसान (जाजम) दिए जाते है उनके ढोल में देवी का वास होता है और ऐसे आदर के लिए किया जाता है
15) राजपूत जनाना में राजपूत महिलाये नाच गान के बाद ढोली जी और ढोलन की तरफ जुक कर प्रणाम करती है
16) नजराने के भी अलग अलग नियम थे, अगर आप छोटे ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के हाथ से उठा लेते थे, पर अगर आप उमराव या सिरायती ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप का हाथ अपने हाथ पर उल्टा करके, अपना हाथ नीचे रख कर नजराना लेते थे !!
17) कोर्ट में अगर आप छोटे ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के आने पर खड़े नहीं होते थे, पर अगर आप उमराव या सिरायती ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के आने और आप के जाने पर दोनों वक्त उनको खड़ा होना पड़ता है'
18) सिर्फ राठोरो के पास "कमध्वज" का टाइटल है, इसका मतलब है, सर काटने के बाद भी लड़ने वाला !
19) राजपूतो में ठाकुर पदवी के इस्तेमाल के बारे में में कुछ बाते :यदि आपके दादोसा हुकम बिराज रहे है तो वो ही ठाकुर पदवी का प्रयोग कर सकते है, आपके दाता हुकम कुंवर का और आप भंवर का प्रयोग कर्रेंगे और आपके बना (चौथी पीढ़ी) के लिए तंवर का प्रयोग होगा.
20) एक ठिकाने में तीन से चार पाकसाला (रसोई) हो सकती थी, ठाकुरसाब, ठुकरानी के लिए विशेष पाकसाला होती थी, एक पाकसाला मरदाना में होती थी, जिस में मास इतीआदि बनते थे, जनाना में सात्विक भोजन की पाकसाला होती थी, विद्वाओ के लिए अलग भोजन बनता था, ठिकाने के कर्मचारी नौकरों के लिए अलग से पाकशाला होती थी, एक पाकशाला मेहमानों के लिए होती थी,
21) र

चुडासमा क्षत्रिय_वंश परिचय


==चुडासमा क्षत्रिय_वंश परिचय==
गोत्र : अत्रि
वंश : चन्द्रवंश / यादव / यदुवंश
शाखा : माध्यायनी
कुल देवी : अम्बा भवानी
सहायक देवी: खोडियार माँ
आदि पुरुष: आदिनारयण भगवान
कुल देवता: भगवन श्री कृष्ण
तलवार : ताती
ध्वजा : केसरी
शंख: अजय
नदी: कालिंदी
नगाड़ा : अजीत
मुख्य गद्दी : जूनागढ़
== जूनागढ़ और चुडासमा का इतिहास ==
>जुनागढ का नाम सुनते ही लोगो के दिमाग मे "आरझी हकुमत द्वारा जुनागढ का भारतसंघ मे विलय, कुतो के शोखीन नवाब, भुट्टो की पाकिस्तान तरफी नीति " जैसे विचार ही आयेंगे, क्योकी हमारे देश मे ईतिहास के नाम पर मुस्लिमो और अंग्रेजो की गुलामी के बारे मे ही पढाया जाता है, कभी भी हमारे गौरवशाली पूर्खो के बारे मे कही भी नही पढाया जाता || जब की हमारा ईतिहास इससे कई ज्यादा गौरवशाली, सतत संघर्षपूर्ण और वीरता से भरा हुआ है ||
> जुनागढ का ईतिहास भी उतना ही रोमांच, रहस्यो और कथाओ से भरा पडा है || जुनागढ पहले से ही गुजरात के भुगोल और ईतिहास का केन्द्र रहा है, खास कर गुजरात के सोरठ प्रांत की राजधानी रहा है || गिरीनगर के नाम से प्रख्यात जुनागढ प्राचीनकाल से ही आनर्त प्रदेश का केन्द्र रहा है || उसी जुनागढ पर चंद्रवंश की एक शाखा ने राज किया था, जिसे सोरठ का सुवर्णकाल कहा गया है || वो राजवंश चुडासमा राजवंश | जिसकी अन्य शाखाए सरवैया और रायझादा है ||
> मौर्य सत्ता की निर्बलता के पश्चात मैत्रको ने वलभी को राजधानी बनाकर सोरठ और गुजरात पर राज किया || मैत्रको की सत्ता के अंत के बाद और 14 शताब्दी मे गोहिल, जाडेजा, जेठवा, झाला जैसे राजवंशो के सोरठ मे आने तक पुरे सोरठ पर चुडासमाओ का राज था ||

> भगवान आदिनारायण से 119 वी पीढी मे गर्वगोड नामक यादव राजा हुए, ई.स.31 मे वे शोणितपुर मे राज करते थे || उनसे 22 वी पीढी मे राजा देवेन्द्र हुए, उनके 4 पुत्र हुए,
1) असपत, 2)नरपत, 3)गजपत और 4)भूपत
>असपत शोणितपुर की गद्दी पर रहे, गजपत, नरपत और भूपत ने एस नये प्रदेश को जीतकर विक्रम संवत 708, बैशाख सुदी 3, शनिवार को रोहिणी नक्षत्र मे 'गजनी' शहर बसाया || नरपत 'जाम' की पदवी धारण कर वहा के राजा बने, जिनके वंशज आज के जाडेजा है || भूपत ने दक्षिण मे जाके सिंलिद्रपुर को जीतकर वहां भाटियानगर बसाया, बाद मे उनके वंशज जैसलमेर के स्थापक बने जो भाटी है ||
> गजपत के 15 पुत्र थे, उसके पुत्र शालवाहन, शालवाहन के यदुभाण, यदुभाण के जसकर्ण और जसकर्ण के पुत्र का नाम समा था || यही समा कुमार के पुत्र चुडाचंद्र हुए || वंथली (वामनस्थली) के राजा वालाराम चुडाचंद्र के नाना थे || वो अपुत्र थे ईसलिये वंथली की गद्दी पर चुडाचंद्र को बिठाया || यही से सोरठ पर चुडासमाओ का आगमन हुआ, वंथली के आसपास का प्रदेश जीतकर चुडाचंद्र ने उसे सोरठ नाम दिया, जंगल कटवाकर खेतीलायक जमीन बनवाई, ई.स. 875 मे वो वंथली की गद्दी पर आये || 32 वर्ष राज कर ई.स. 907 मे उनका देहांत हो गया ||
वंथली के पास धंधुसर की हानीवाव के शिलालेख मे लिखा है :



राजपूत


राजपूत

 १९३१ की जनगणना के अनुसार भारत में १२.८ मिलियन राजपूत थे जिनमे से ५०००० सिख, २.१ मिलियन मुसलमान और शेष हिन्दू थे।
हिन्दू राजपूत क्षत्रिय कुल के होते हैं।



राजपूत राजपूत उत्तर भारत का एक क्षत्रिय कुल। यह नाम राजपुत्र का अपभ्रंश है। राजस्थान में राजपूतों के अनेक किले हैं। राठौर, कुशवाहा, सिसोदिया, चौहान, जादों, पंवार आदि इनके प्रमुख गोत्र हैं। राजस्थान को ब्रिटिशकाल मे राजपूताना भी कहा गया है। पुराने समय में आर्य जाति में केवल चार वर्णों की व्यवस्था थी, किन्तु बाद में इन वर्णों के अंतर्गत अनेक जातियाँ बन गईं। क्षत्रिय वर्ण की अनेक जातियों और उनमें समाहित कई देशों की विदेशी जातियों को कालांतर में राजपूत जाति कहा जाने लगा। कवि चंदबरदाई के कथनानुसार राजपूतों की 36 जातियाँ थी। उस समय में क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत सूर्यवंश और चंद्रवंश के राजघरानों का बहुत विस्तार हुआ। राजपूतों में मेवाड़ के महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान का नाम सबसे ऊंचा है।
राजपूत शब्द का अर्थ होता है राजा का पुत्र। राजा से राज और पुत्र से पूत आया है, यानि राजा का पुत्र से राजपूत | राजपूत एक हिँदी शब्द है जिसे हम संस्कृत मेँ राजपुत्र कहते हैँ।राजपुत सामान्यतः क्षत्रिय वर्ण मे आते है|राजस्थानी मे ये रजपुत के नाम से भी जाने जाते है। ।

राजपूतों की उत्पत्ति
इन राजपूत वंशों की उत्पत्ति के विषय में विद्धानों के दो मत प्रचलित हैं- एक का मानना है कि राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी है, जबकि दूसरे का मानना है कि, राजपूतों की उत्पत्ति भारतीय है। 12वीं शताब्दी के बाद् के उत्तर भारत के इतिहास को टोड ने 'राजपूत काल' भी कहा है। कुछ इतिहासकारों ने प्राचीन काल एवं मध्य काल को 'संधि काल' भी कहा है। इस काल के महत्वपूर्ण राजपूत वंशों में राष्ट्रकूट वंश, चालुक्य वंश, चौहान वंश, चंदेल वंश, परमार वंश एवं गहड़वाल वंश आदि आते हैं।
विदेशी उत्पत्ति के समर्थकों में महत्वपूर्ण स्थान 'कर्नल जेम्स टॉड' का है। वे राजपूतों को विदेशी सीथियन जाति की सन्तान मानते हैं। तर्क के समर्थन में टॉड ने दोनों जातियों (राजपूत एवं सीथियन) की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की समानता की बात कही है। उनके अनुसार दोनों में रहन-सहन, वेश-भूषा की समानता, मांसाहार का प्रचलन, रथ के द्वारा युद्ध को संचालित करना, याज्ञिक अनुष्ठानों का प्रचलन, अस्त्र-शस्त्र की पूजा का प्रचलन आदि से यह प्रतीत होता है कि राजपूत सीथियन के ही वंशज थे।
विलियम क्रुक ने 'कर्नल जेम्स टॉड' के मत का समर्थन किया है। 'वी.ए. स्मिथ' के अनुसार शक तथा कुषाण जैसी विदेशी जातियां भारत आकर यहां के समाज में पूर्णतः घुल-मिल गयीं। इन देशी एवं विदेशी जातियों के मिश्रण से ही राजपूतों की उत्पत्ति हुई।
भारतीय इतिहासकारों में 'ईश्वरी प्रसाद' एवं 'डी.आर. भंडारकर' ने भारतीय समाज में विदेशी मूल के लोगों के सम्मिलित होने को ही राजपूतों की उत्पत्ति का कारण माना है। भण्डारकर, कनिंघम आदि ने इन्हे विदेशी बताया है। । इन तमाम विद्वानों के तर्को के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि राजपूत क्षत्रियों के वंशज थे, फिर भी उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण अवश्य था। अतः वे न तो पूर्णतः विदेशी थे, न तो पूर्णत भारतीय।
इतिहास
राजपूतोँ का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है। हिँदू धर्म के अनुसार राजपूतोँ का काम शासन चलाना होता है।कुछ राजपुतवन्श अपने को भगवान श्री राम के वन्शज बताते है।राजस्थान का अशिकन्श भाग ब्रिटिश काल मे राजपुताना के नाम से जाना जाता था।
 राजपूतोँ के वँश
"दस रवि से दस चन्द्र से बारह ऋषिज प्रमाण, चार हुतासन सों भये कुल छत्तिस वंश प्रमाण, भौमवंश से धाकरे टांक नाग उनमान, चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण."
अर्थ:-दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय दस चन्द्र वंशीय,बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है,बाद में भौमवंश नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का पमाण मिलता है।
सूर्य वंश की दस शाखायें:-
१. कछवाह२. राठौड ३. बडगूजर४. सिकरवार५. सिसोदिया ६.गहलोत ७.गौर ८.गहलबार ९.रेकबार १०.जुनने
चन्द्र वंश की दस शाखायें:-
१.जादौन२.भाटी३.तोमर४.चन्देल५.छोंकर६.होंड७.पुण्डीर८.कटैरिया९.स्वांगवंश १०.वैस
अग्निवंश की चार शाखायें:-
१.चौहान२.सोलंकी३.परिहार ४.पमार.
ऋषिवंश की बारह शाखायें:-
१.सेंगर२.दीक्षित३.दायमा४.गौतम५.अनवार (राजा जनक के वंशज)६.विसेन७.करछुल८.हय९.अबकू तबकू १०.कठोक्स ११.द्लेला १२.बुन्देला चौहान वंश की चौबीस शाखायें:-
१.हाडा २.खींची ३.सोनीगारा ४.पाविया ५.पुरबिया ६.संचौरा ७.मेलवाल८.भदौरिया ९.निर्वाण १०.मलानी ११.धुरा १२.मडरेवा १३.सनीखेची १४.वारेछा १५.पसे

અમર વિરત્વ હમીરજી ગોહિલ


- અમર વિરત્વ હમીરજી ગોહિલ

ભલે યુગોના સમય વિત્યા કરે, બદલાયા કરે, પરંતુ માણસની ખાનદાની, ખુમારી અને ધરા કાજે, કોઇ ધરમ કાજે, કોઇ વટ વચન ગાય માતને કાજે, કે પછી અન્યાય સામે ધીંગાણે ચડી પાળીયા બની ગયેલા વિરોનો ઈતિહાસ હમેશા રહેવાનો છે, સૌરાષ્ટ્રની ધરતી ઉપર ઘણા માનવ રત્નો જન્મ્યા છે જે ઓની ખાનદાની અને ખુમારી આજે પણ સૌરાષ્ટ્રની ધરામાં ધરબી પડી છે,

નેક, ટેક અને ધરમની જ રે, અને વળી પાણે પાણે વાત,
ઈ તો સંત ને શૂરાના બેસણાં, અમ ધરતીની અમીરાત,

આજે જેમની વાત કરવી છે તે ગુજરાતના ઘુઘવતા અરબી સમુદ્ર કિનારા પાસે બિરાજમાન ભગવાન સોમનાથ મંદિરના ઈતિહાસમા સુવર્ણ અક્ષરોમા લખાયેલ છે, ધરમની રક્ષા કાજે યુધ્ધે ચડેલા મીઢોડ બંધા રાજપુતની આજે વાત માડવી છે. જેમનું નામ સોમનાથ મંદિરના ઈતિહાસમા અમર બની ગયું છે, ભગવાન સોમનાથ મંદિર પરીસરમા પ્રવેશતા પ્રથમ ડેરી તેમની છે, કવિએ અટલે તો કહ્યું છે...,

"ધડ ધીગાણે જેના માથા મસાણે
એના પાળિયા થઈને પુજાવું
ઘડવૈયા મારે, ઠાકોરજી નથી થવું."

ભગવાન સોમનાથના સાનિધ્યમા જેમનું સ્થાન છે એવા અમર વીરત્વ રાખનાર રાજપુત યોધ્ધાનું નામ હમીરજી ગોહિલ છે, ભીમજી ગોહિલના સૌથી નાના દિકરા હમીરજી ગોહિલ કે જેમનું નામ હિન્દુ ધર્મની રક્ષા માટે ભગવાન સોમનાથ મંદિરના ઈતિહાસમા અમર બની ગયું છે.

"જો જાણત તુજ હાથ સાચાં મોતી વાવશે
'વવરાવત દી રાત તો તુંને ! દેપાળદે..!! "

ભારત દેશની પશ્ચિમે ગુજરાતના અમરેલી જિલ્લામાં આવેલુ અરઠીલા ગામ છે. આ પ્રદેશ ગોહિલવાડ તરીકે ઓળખાય છે. આમ અરઠીલા ગામના ભીમજી ગોહિલના ત્રણ કુંવર જેમાં દુદાજી, અરજણજી અને હમીરજી થયા, ગામ અરઠીલા અને લાઠીની ગાદી દુદાજી સંભાળતા, ગઢાળીના ૧૧ ગામ અરજણજી સંભાળતા અને સૌથી નાના પુત્ર હમીરજી સમઢીયાળા ગામની ગાદી સંભાળતા હતા. આમ સૌરાષ્ટ્ર પ્રદેશનાં ગોહિલવાડના રાજકુંટુંબમાં જન્મ લઈને પોતાના કુળને છાજે તે રીતે જીવન જીવી રહ્યા હતાં. આમ તો હમીરજી ગોહિલ કવિ કલાપી તરીકે પ્રખ્યાત થયેલ સુરસિંહજી તખ્તસિંહજી ગોહિલના પુર્વજ હતા.

અરજણજી અને હમીરજી બંને ભાઈઓને અંતરે ગાંઠયુ હતી. બન્ને ભાઈને એક બીજા સાથે ખુબજ પ્રેમ હતો. એક દિવસ બન્યું એવુ કે ગઢાળીના દરબાર ગઢમા બે કુકડા વચ્ચે લડાઈ જામી છે. લડાઈમા બંને કુકડા લોહી લુહાણ થઈ ગયા હતા એમાનો એક કુકડો અરજણજીનો અને બીજો હમીરજીનો હતો, બંને પક્ષે સામ સામે પડકારા દેવાઈ રહ્યા છે. હવે બન્યું એવુ બંને કુકડામાંથી અરજણજીનો કુકડો લડતા લડતા ભાગી ગયો. કુકડો લડાઈ છોડી ભાગી જતા પોતાનો પરાજય જોઈ અરજણજી ઉકળી ઉઠ્યા અને ઊભા થઈને હમીરજીના કુકડાને માથે સોટીના ઘા મારવા લાગ્યા. કુકડાને મારતા જોઈને હમીરજી બોલ્યા કે, ભાઈ, આ તો રમત કહેવાય તેમાં એક જીતે તો બીજો હારે એમાં રોષ સાનો જો તમને ગુસ્સો આવ્યો હોય તો મને મારો ; બિચારા કુકડાનો શું વાંક ?

હમીરજીની વાત સાંભળીને અરજણજી અકળાઈ ઉઠયા કહયુ કે તનેય હમણા ફાટય આવી છે જા, હાલી નીકળ અને જયાં સુધી મારૂ નામ સંભળાય ત્યાં સુધી ક્યાંય રહેતો નહી. આમ નાની બાબતે અરજણજીએ પોતાના નાના ભાઈને જાકારો આપ્યો. અરજણજી જે બોલ બોલ્યા તેનો હમીરજીને ભારે આઘાત લાગી ગયો. નાની વાતનુ વતેસર થઈ ગયુ. હમીરજી સાથે ૨૦૦ જેટલા મર્દ રાજપુત ભાઈબંધો હતા. હમીરજી પોતાના ભાઈબંધો સાથે રાજસ્થાનના મારવાડ પંથકમા ચાલ્યા ગયા. આમ નજીવી બાબતે ભાઈ સાથે વાત બગડતા નાની ઉમંરે હમીરજીએ પોતાનુ ઘર છોડ્યું હતું.

"ઘર આંગણીયે રોજ તડકો છાંયડો હોય,
સુખ દુઃખ ના વારા નહી, બચી શકે ના કોય."

મહમદ તઘલખ તે સમયે દિલ્હીની ગાદી પર શાસન કરતો હતો, જુનાગઢમાં પોતાના સુબા સમસુદીનનો પરાજય થતા બાદશાહ તઘલઘે સમસુદીનની જગ્યાએ બદલીને ઝફરખાનને ગુજરાતનો સુબો બનાવ્યો ઝફરખાન મુળ રાજસ્થાનનો પણ સમય જતા સુબામાંથી ગુજરાતનો સ્વતંત્ર બાદશાહ બની બેસી ગયો. હિન્દુ ધર્મનો અને મૂર્તિ પુજાનો ઝફરખાન કટ્ટર વિરોધી હતો. ઝફરખાને સોમનાથમાં બાદશાહી થાણુ સ્થાપી રસુલખાન નામના અમલદારને સોમનાથનો થાણેદાર બનાવ્યો હતો. હમેશાથી ઝફરખાનની નજર સોમનાથ પર હતી કેમ કે સોમનાથ હિન્દુઓની આસ્થાનું મંદિર તો ખરું સાથે ભગવાન મહાદેવના બાર જ્યોતિલીંગમા પ્રથમ સોમનાથ હતું.

હિન્દુ ધર્મના કટ્ટર વિરોધી ઝફરખાને ફરમાન જાહેર કર્યું " હિન્દુઓને સોમનાથ મંદિરમા એકત્ર થવા દેવા નહી " પરંતુ એજ સમયે શિવરાત્રીનો તહેવાર આવતો હોય સોમનાથ મંદિરે શિવરાત્રીનો મેળો ભરાયો હતો રસુલખાન અને તેના સાગ્રીતો શિવરાત્રીના મેળામા આવી લોકો સાથે મારઝુડ કરી લોકોને વિખેરવા લાગ્યા હતા, બાળકો અને મહિલાઓ પર અત્યાચાર કરી રહ્યા હતા, આથી પરિસ્થિતિ વણસી ગઈ લોકો ઉશ્કેરાઈ ગયા રસુલખાનને પરીવાર અને સાગ્રીતો સાથે જ મારી નાખવામા આવ્યો.

રસુલખાનને મારી નાખવામા આવ્યો સમાચાર ઝફરખાનને મળતા ખાન કાળઝાળ થઈ ગયો અને સૌરાષ્ટ્રને હાથીના પગ નીચે કચડી નાખવા સળવળી ઊઠયો. બાદશાહ ઝફરખાનના મનમા કટ્ટર હિન્દુ વિચારની ધીમી આગ સોમનાથમા રસુલખાનની મોતે

क्रिकेट के सम्राट प्रथम भारतीय क्रिकेटर


क्रिकेट के सम्राट प्रथम भारतीय क्रिकेटर-नवानगर रियासत के यदुवंशी राजपूत (जडेजा )महाराजा जाम साहब रणजीत सिंह जी ।
क्रिकेट का नाम लेते ही रणजी का स्मरण होता ही है।क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए आराध्य रणजी की यह प्रेरणादायक जीवनी प्रस्तुत है जो हर छोटा -बड़ा क्रिकेट प्रेमी अवश्य पढ़ना चाहेगा ।
रणजी एक महाप्रतापी क्रिकेट खिलाड़ी थे जिनकी स्म्रति में आज देश में रणजी ट्रॉफी क्रिकेट टूर्नामेंट आयोजित किया जाता है ।एक छोटी सी भारतीय यदुवंशी रियासत के राजकुमार के रूप में उनका जन्म हुआ किन्तु वे इंग्लैंड के इस राष्ट्रीय खेल के सम्राट बन गए ।वे एक महान खिलाड़ी ,महान व्यक्तित्व एवं महान देशभक्त थे ।रणजी इंग्लैंड में रहकर इंग्लैंड के लिए खेलने बाले प्रथम भारतीय थे जिन्होंने न केवल अपना नाम अमर किया बल्कि भारत को ख्याति दिलाई ।
भारत के सार्वभौम स्वतंत्र राष्ट्र बनने के पूर्व अंग्रेजों के शासनकाल में यहाँ सैकड़ों छोटी रियासतें थी ।इनमें से एक रियासत नवानगर थी जो की गुजरात राज्य के काठियावाड़ क्षेत्र में स्थित थी ।नवानगर में "सरोदर "एक छोटा सा गांव था।नवानगर के राजवंश की एक शाखा उस गांव में रहा करती थी ।इसी शाखा से सम्बंधित रणजी का जन्म सन् 10सितम्बर 1872 में हुआ था ।उनके पिता जीवन सिंह जी एक किसान थे ।
रणजी ने अपना बचपन सरोदर गांव में बिताया ।इसके बाद वे शिक्षा प्राप्ति के हेतु राजकोट गये ।वहां राजकुमार कॉलेज के छात्र रहते हुए रणजी ने क्रिकेट खेलना प्रारम्भ किया।कुछ ही समय में उन्होंने बल्लेबाजी में दक्षता हासिल करली व् एक उपयोगी गेंदबाज बन गए ।वैसे देखा जाय तोबल्लेबाजी में उन्होंने विशेष निपुणता अर्जित की ।एक छोटे से गांव का किसान का बेटा और बाद में छोटी सी रियासत का महाराजा रणजी इस महान खेल का सम्राट बन गया ।
हमारे सैकड़ों महान खिलाड़ियों में अत्यंत प्रसिद्ध व् सर्वाधिक सम्मानित नाम रणजी का है ।न केवल वे समय की द्रष्टी से प्रथम रहे बल्कि हर प्रकार से वे अग्रणी रहे ।रणजी एक जादू भरा नाम है जो लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता है ।रणजी ने अपने समय में इतना यश प्राप्त किया कि आज सराहना व् सम्मान से भरी अनेक कथाएं उनके नाम के साथ प्रचलित है ।
कैंब्रिज विष्वविद्यालय में अध्ययन में रहते हुए भी उन्होंने बड़ी लगन के साथ बल्लेबाजी का अभ्यास किया।इंग्लैंड में बहुत सी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हुए उन्होंने सभी की प्रशंसा प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली।वे बहुत से अंग्रेजों के परम मित्र बन गए ।इंग्लैंड के क्रिकेट जगत में रणजी का सम्मान किया जाने लगा ।
सन्1907 में रणजी के जीवन में एक महान अवसर आया ।उन्होंने "जाम साहब "की उपाधि के साथ नवानगर के महाराजा के रूप में शासन का कार्यभार सम्हाल लिया ।रणजी नवानगर के "जामसाहब "कहलाने लगे ।ग्रीष्मकाल में वे सदा की तरह इंग्लैंड में ही रहते थे तथा वहां क्रिकेट खेलते थे।शीतकाल में वे भारत लौट आते तथा अपनी रियासत का प्रशासनि क कारोवार स्वयं चलाते थे ।
विश्व में शान्ति कायम रखने तथा युद्ध को रोकने के उद्देश्यों से "लीग ऑफ़ नेशन्स "का गठन किया गया

।लीग का उत्तारदायत्व विश्वशांति की रक्षा करना था।लीग के 1920 में हुए अधिवेशन में भारत की रियासतों का पतिनिध्वतव करने का सम्मान रणजीत सिंह जी को मिला ।
2अप्रैल 1933 को जामनगर में रणजी का देहावसान हुआ ।उस समय उनकी आयु 61 वर्ष की थी ।भारत के प्रमुख नेताओं ने उनके देहांत को देश की महान क्षति निरूपति किया ।सम्पूर्ण विश्व में उनकी डेथ के समाचार से शोक की लहर फ़ैल गयी ।
रणजी भारत व् भारतवासियों के प्रति अत्याधिक सम्मान रखते थे ।किसी के द्वारा अपने देश की आलोचना वे कभी भी बर्दास्त नही कर पाते थे।उनकी सबसे बड़ी अभिलाषा यही थी कि इंग्लैंड में रहने वाला कोई भी भारतीय न तो इस तरह से बोले और न ही व्यवहार करे जिससे कि भारत पर लांक्षन आये ।
रणजी का जीवन चरित्र अपने आप में परिपूर्णता लिए हुए है ।भारत के ध्वज को विदेशी राष्ट्रों में ऊंचा रखने वाले तथा देश को गौरव दिलानेवाले महान बिभूतिओं में उनकी आदर के साथ गणना की जाती है और सम्मान किया जाता है ।पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह जी ने उनकी यादगार में सन् 1935"रणजी ट्रॉफी "नाम देश में पहली बार क्रिकेट खेल प्रारम्भ किया ।ऐसे महान व्यक्तित्व से हमारी युवा पीढ़ी को शिक्षा लेने की जरुरत हैकि एक किसान का बेटा भी कठिन परिश्रम व् लगन से कितना उच्च स्थान व् ख्याति प्राप्त कर सकता है ।किसी ने सत्य ही कहा है "कि खुद को कर बुलंद इतना कि खुदा भी पूछे कि तेरी रज़ा क्या है "।इन्ही शब्दों के साथ में इस महान आत्मा को सत् सत् नमन करता हूँ ।जय हिन्द ।जय राजपुताना ।

208 किलो का वजन लेकर लड़ते थे प्रताप

महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था। उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था। महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो… और लम्बाई 7 फीट 5 इंच थी। यह बात अचंभित करने वाली है कि इतना वजन लेकर प्रताप रणभूमि में लड़ते थे।

पहले विश्व युद्ध के दौरान अविभाजित भारत


पहले विश्व युद्ध के दौरान अवि

भाजित भारत (पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश) के क़रीब दस लाख से ज़्यादा सैनिकों ने हिस्सा लिया था.
इस युद्ध के दौरान ब्रितानी सेना की ओर से लड़ते हुए अविभाजित भारत के करीब 70 हज़ार सैनिकों की मृत्यु हो गई थी. इतिहासकारों के मुताबिक इनमें से ज़्यादातर लोगों की शहादत को भुला दिया गया.
ब्रिटिश हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स के सदस्य नवनीत ढोलकिया ने इस मामले में एक अभियान चलाने का फ़ैसला लिया है. इस अभियान का उद्देश्य ब्रितानी स्कूलों में इतिहास की किताब में इन सैनिकों के योगदान को शामिल कराना है.
नवनीत ढोलकिया ने कहा, “जब मैं युवाओं से मिलता हूं तो मुझे लगता है कि इतिहास से उन्हें दूसरे समुदायों के योगदान के बारे में जानकारी नहीं मिलती. जब मैं कोई सवाल पूछता तो इस मामले में एक गैप देखने को मिलता था.”
उन्होंने ये भी बताया कि भारतीय मूल के ब्रितानियों को अपने देश के लोगों के योगदान के बारे में पता होना चाहिए. नवनीत ढोलकिया ने बताया, “लोगों के लिए ये समझना महत्वपूर्ण है कि वे किस देश से आए हैं, किसी विविधता से आए हैं और सभी अवरोधों के बावजूद उनके समुदाय ने कितनी प्रगति की है.”
ब्रिटेन में 15 से 16 साल के बच्चों के लिए होने वाली परीक्षा जीसीएसई के टेक्स्ट बुक में केवल एक फोटो कैप्शन में पहले विश्वयुद्ध के दौरान भारतीयों के योगदान का जिक्र है.
किंग्स कॉलेज, लंदन के डॉ. शांतानु दास ने दोनों विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों के योगदान पर कई किताबें लिखी हैं. उनका ये मानना है कि भारत में भी इन सैनिकों के योगदान को याद नहीं रखा गया है.
उन्होंने बताया, “दरअसल मुख्य कहानी में यूरोपीय लोगों का जिक्र ज़्यादा है क्योंकि जब आप किसी चीज़ को याद करते हैं कि सबसे पहले अपने परिवार से शुरुआत करते हैं और गरीब भारतीय, जो शिक्षित नहीं थे, उनकी उपेक्षा हुई है.”
इस अभियान के बारे में जानकारी लेने के लिए हमने शिक्षा विभाग से भी संपर्क करने की कोशिश की लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. ढोलकिया ने ये अभियान तब शुरू किया है जब पिछले दिनों में लंदन से सटे शहर ब्राइटन में भारतीय सैनिकों के योगदान पर जश्न मनाने वाले समारोह शुरू हुआ था.
इस समारोह के आर्टिस्टिक डायरेक्टर अजय छाबरा ने कहा, “इन सैनिकों का कोई नाम नहीं हुआ. वे हमारे लैंडस्कैप का हिस्सा बनकर रह गए हैं. उन यादों को जीवित रखने क लिए हमें उन्हें आवाज़ देनी होगी. हम उसे आंदोलन का रूप देंगे. हम उसे जीवंत बनाएंगे.”
इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य भारतीय सैनिकों के योगदान को नृत्य, कार्यशाला और थिएटर के माध्यम से याद करना है.